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Kabir Ke Dohe



Kabir Ke Dohe


तूँ तूँ करता तूँ भया, मुझ मैं रही न हूँ।
वारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तूँ ॥

जीवात्मा कह रही है कि ‘तू है’ ‘तू है’ कहते−कहते मेरा अहंकार समाप्त हो गया। इस तरह भगवान पर न्यौछावर होते−होते मैं पूर्णतया समर्पित हो गई। अब तो जिधर देखती हूँ उधर तू ही दिखाई देता है।


मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा।
तेरा तुझकौं सौंपता, क्या लागै है मेरा॥

मेरे पास अपना कुछ भी नहीं है। मेरा यश, मेरी धन-संपत्ति, मेरी शारीरिक-मानसिक शक्ति, सब कुछ तुम्हारी ही है। जब मेरा कुछ भी नहीं है तो उसके प्रति ममता कैसी? तेरी दी हुई वस्तुओं को तुम्हें समर्पित करते हुए मेरी क्या हानि है? इसमें मेरा अपना लगता ही क्या है?



जिस मरनै थै जग डरै, सो मेरे आनंद।
कब मरिहूँ कब देखिहूँ, पूरन परमानंद॥

जिस मरण से संसार डरता है, वह मेरे लिए आनंद है। कब मरूँगा और कब पूर्ण परमानंद स्वरूप ईश्वर का दर्शन करूँगा। देह त्याग के बाद ही ईश्वर का साक्षात्कार होगा। घट का अंतराल हट जाएगा तो अंशी में अंश मिल जाएगा।


मन के हारे हार हैं, मन के जीते जीति।
कहै कबीर हरि पाइए, मन ही की परतीति॥

मन के हारने से हार होती है, मन के जीतने से जीत होती है (मनोबल सदैव ऊँचा रखना चाहिए)। मन के गहन विश्वास से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है।
ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोये।
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए।।


प्रेमी ढूँढ़त मैं फिरूँ, प्रेमी मिलै न कोइ।
प्रेमी कूँ प्रेमी मिलै तब, सब विष अमृत होइ॥

परमात्मा के प्रेमी को मैं खोजता घूम रहा हूँ परंतु कोई भी प्रेमी नहीं मिलता है। यदि ईश्वर-प्रेमी को दूसरा ईश्वर-प्रेमी मिल जाता है तो विषय-वासना रूपी विष अमृत में परिणत हो जाता है।


कबीर माया पापणीं, हरि सूँ करे हराम।
मुखि कड़ियाली कुमति की, कहण न देई राम॥

यह माया बड़ी पापिन है। यह प्राणियों को परमात्मा से विमुख कर देती है तथा
उनके मुख पर दुर्बुद्धि की कुंडी लगा देती है और राम-नाम का जप नहीं करने देती।


साँच बराबरि तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जाके हिरदै साँच है ताकै हृदय आप॥

सच्चाई के बराबर कोई तपस्या नहीं है, झूठ (मिथ्या आचरण) के बराबर कोई पाप कर्म नहीं है। जिसके हृदय में सच्चाई है उसी के हृदय में भगवान निवास करते हैं।


बेटा जाए क्या हुआ, कहा बजावै थाल।
आवन जावन ह्वै रहा, ज्यौं कीड़ी का नाल॥

बेटा पैदा होने पर हे प्राणी थाली बजाकर इतनी प्रसन्नता क्यों प्रकट करते हो?
जीव तो चौरासी लाख योनियों में वैसे ही आता जाता रहता है जैसे जल से युक्त नाले में कीड़े आते-जाते रहते हैं।


काबा फिर कासी भया, राम भया रहीम।
मोट चून मैदा भया, बैठ कबीर जीम॥

सांप्रदायिक सद्भावना के कारण कबीर के लिए काबा काशी में परिणत हो गया। भेद का मोटा चून या मोठ का चून अभेद का मैदा बन गया, कबीर उसी को जीम रहा है।


कबीर कुत्ता राम का, मुतिया मेरा नाऊँ।
गलै राम की जेवड़ी, जित खैंचे तित जाऊँ॥

कबीर कहते हैं कि मैं तो राम का कुत्ता हूँ, और नाम मेरा मुतिया है। मेरे गले में राम की ज़ंजीर पड़ी हुई है, मैं उधर ही चला जाता हूँ जिधर वह ले जाता है। प्रेम के ऐसे बंधन में मौज-ही-मौज है।


हम भी पांहन पूजते, होते रन के रोझ।
सतगुरु की कृपा भई, डार्या सिर पैं बोझ॥

कबीर कहते हैं कि यदि सद्गुरु की कृपा न हुई होती तो मैं भी पत्थर की पूजा करता और जैसे जंगल में नील गाय भटकती है, वैसे ही मैं व्यर्थ तीर्थों में भटकता फिरता। सद्गुरु की कृपा से ही मेरे सिर से आडंबरों का बोझ उतर गया।


चाकी चलती देखि कै, दिया कबीरा रोइ।
दोइ पट भीतर आइकै, सालिम बचा न कोई॥

काल की चक्की चलते देख कर कबीर को रुलाई आ जाती है। आकाश और धरती के दो पाटों के बीच कोई भी सुरक्षित नहीं बचा है।


सब जग सूता नींद भरि, संत न आवै नींद।
काल खड़ा सिर ऊपरै, ज्यौं तौरणि आया बींद॥

सारा संसार नींद में सो रहा है किंतु संत लोग जागृत हैं। उन्हें काल का भय नहीं है, काल यद्यपि सिर के ऊपर खड़ा है किंतु संत को हर्ष है कि तोरण में दूल्हा खड़ा है। वह शीघ्र जीवात्मा रूपी दुल्हन को उसके असली घर लेकर जाएगा।


साँई मेरा बाँणियाँ, सहजि करै व्यौपार।
बिन डाँडी बिन पालड़ै, तोलै सब संसार॥

परमात्मा व्यापारी है, वह सहज ही व्यापार करता है। वह बिना तराज़ू एवं बिना डाँड़ी पलड़े के ही सारे सांसार को तौलता है। अर्थात् वह समस्त जीवों के कर्मों का माप करके उन्हें तदनुसार गति देता है।


जौं रोऊँ तौ बल घटै, हँसौं तौ राम रिसाइ।
मनहीं माँहि बिसूरणां, ज्यूँ धुँण काठहिं खाइ॥

यदि आत्मारूपी विरहिणी प्रिय के वियोग में रोती है, तो उसकी शक्ति क्षीण होती है और यदि हँसती है, तो परमात्मा नाराज़ हो जाते हैं। वह मन ही मन दुःख से अभिभूत होकर चिंता करती है और इस तरह की स्थिति में उसका शरीर अंदर−अंदर वैसे ही खोखला होता जाता है, जैसे घुन लकड़ी को अंदर−अंदर खा जाता है।


बिरह जिलानी मैं जलौं, जलती जलहर जाऊँ।
मो देख्याँ जलहर जलै, संतौ कहा बुझाऊँ॥

विरहिणी कहती है कि विरह में जलती हुई मैं सरोवर (या जल-स्थान)
के पास गई। वहाँ मैंने देखा कि मेरे विरह की आग से जलाशय भी जल रहा है। हे संतो! बताइए मैं अपनी विरह की आग को कहाँ बुझाऊँ?


सात समंद की मसि करौं, लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं, तऊ हरि गुण लिख्या न जाइ॥

यदि मैं सातों समुद्रों के जल की स्याही बना लूँ तथा समस्त वन समूहों की लेखनी कर लूँ, तथा सारी पृथ्वी को काग़ज़ कर लूँ, तब भी परमात्मा के गुण को लिखा नहीं जा सकता। क्योंकि वह परमात्मा अनंत गुणों से युक्त है।


हाड़ जलै ज्यूँ लाकड़ी, केस जले ज्यूँ घास।
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास॥

हे जीव, यह शरीर नश्वर है। मरणोपरांत हड्डियाँ लकड़ियों की तरह और केश घास (तृणादि) के समान जलते हैं। इस तरह समस्त शरीर को जलता देखकर कबीर उदास हो गया। उसे संसार के प्रति विरक्ति हो गई।


कबीर यहु घर प्रेम का, ख़ाला का घर नाँहि।
सीस उतारै हाथि करि, सो पैठे घर माँहि॥

परमात्मा का घर तो प्रेम का है, यह मौसी का घर नहीं है जहाँ मनचाहा प्रवेश मिल जाए। जो साधक अपने सीस को उतार कर अपने हाथ में ले लेता है वही इस घर में प्रवेश पा सकता है।


हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई।
बूँद समानी समुंद मैं, सो कत हेरी जाइ॥

साधना की चरमावस्था में जीवात्मा का अहंभाव नष्ट हो जाता है। अद्वैत की अनुभूति जाग जाने के कारण आत्मा का पृथक्ता बोध समाप्त हो जाता है। अंश आत्मा अंशी परमात्मा में लीन होकर अपना अस्तित्व मिटा देती है।
यदि कोई आत्मा के पृथक् अस्तित्व को खोजना चाहे तो उसके लिए यह असाध्य कार्य होगा।


माया मुई न मन मुवा, मरि-मरि गया सरीर।
आसा त्रिष्णाँ नाँ मुई, यौं कहै दास कबीर॥

कबीर कहते हैं कि प्राणी की न माया मरती है, न मन मरता है, यह शरीर ही बार-बार मरता है। अर्थात् अनेक योनियों में भटकने के बावजूद प्राणी की आशा और तृष्णा नहीं मरती वह हमेशा बनी ही रहती है।


माली आवत देखि के, कलियाँ करैं पुकार।
फूली-फूली चुनि गई, कालि हमारी बार॥

मृत्यु रूपी माली को आता देखकर अल्पवय जीव कहता है कि जो पुष्पित थे अर्थात् पूर्ण विकसित हो चुके थे, उन्हें काल चुन ले गया। कल हमारी भी बारी आ जाएगी। अन्य पुष्पों की तरह मुझे भी काल कवलित होना पड़ेगा।


कलि का बामण मसखरा, ताहि न दीजै दान।
सौ कुटुंब नरकै चला, साथि लिए जजमान॥

कलियुग का ब्राह्मण दिल्लगी-बाज़ है (हँसी मज़ाक करने वाला) उसे दान मत दो। वह अपने यजमान और सैकड़ों कुटुंबियों के साथ नरक जाता है।


पाणी ही तैं पातला, धूवां हीं तैं झींण।
पवनां बेगि उतावला, सो दोस्त कबीरै कीन्ह॥

जो जल से भी अधिक पतला (सूक्ष्म) है और धुएँ से भी झीना है और जो पवन के वेग से भी अधिक गतिमान है। ऐसे रूप वाले सूक्ष्म उन्मन को कबीर ने अपना मित्र बनाया है।


चकवी बिछुटी रैणि की, आइ मिली परभाति।
जे जन बिछूटे राम सूँ, ते दिन मिले न राति॥

रात के समय में अपने प्रिय से बिछुड़ी हुई चकवी (एक प्रकार का पक्षी) प्रातः होने पर अपने प्रिय से मिल गई। किंतु जो लोग राम से विलग हुए हैं, वे न तो दिन में मिल पाते हैं और न रात में।


नैनाँ अंतरि आव तूँ, ज्यूँ हौं नैन झँपेऊँ।
नाँ हौं देखौं और कूँ, नाँ तुझ देखन देऊँ॥

आत्मारूपी प्रियतमा कह रही है कि हे प्रियतम! तुम मेरे नेत्रों के भीतर आ जाओ। तुम्हारा नेत्रों में आगमन हाते ही, मैं अपने नेत्रों को बंद कर लूँगी या तुम्हें नेत्रों में बंद कर लूँगी। जिससे मैं न तो किसी को देख सकूँ और न तुम्हें किसी को देखने दूँ।


मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाणि।
दसवाँ द्वारा देहुरा, तामै जोति पिछांणि॥

मन को मथुरा (कृष्ण का जन्म स्थान) दिल को द्वारिका (कृष्ण का राज्य स्थान) और देह को ही काशी समझो। दशवाँ द्वार ब्रह्म रंध्र ही देवालय है, उसी में परम ज्योति की पहचान करो।


मुला मुनारै क्या चढ़हि, अला न बहिरा होइ।
जेहिं कारन तू बांग दे, सो दिल ही भीतरि जोइ॥

हे मुल्ला! तू मीनार पर चढ़कर बाँग देता है, अल्लाह बहरा नहीं है। जिसके लिए तू बाँग देता है, उसे अपने दिल के भीतर देख।


नर-नारी सब नरक है, जब लग देह सकाम।
कहै कबीर ते राम के, जैं सुमिरैं निहकाम॥

जब तक यह शरीर काम भावना से युक्त है तब तक समस्त नर-नारी नरक स्वरूप हैं। किंतु जो काम रहित होकर परमात्मा का स्मरण करते हैं वे परमात्मा के वास्तविक भक्त हैं।


सतगुरु हम सूँ रीझि करि, एक कह्या प्रसंग।
बरस्या बादल प्रेम का, भीजि गया सब अंग॥

सद्गुरु ने मुझ पर प्रसन्न होकर एक रसपूर्ण वार्ता सुनाई जिससे प्रेम रस की वर्षा हुई और मेरे अंग-प्रत्यंग उस रस से भीग गए।


जो जानहु जिव आपना, करहु जीव को सार।
जियरा ऐसा पाहुना, मिले न दूजी बार॥

यदि जीव को अपना स्वरूप समझते हो, तो उसे पूर्णत: प्रमाणित सर्वोच्च सत्ता समझो और उसका स्वागत करो। जीव मानव शरीर में ऐसा पाहुना है, जो लौटकर पुन: इसमें नहीं आएगा।


कबीर मरनां तहं भला, जहां आपनां न कोइ।
आमिख भखै जनावरा, नाउं न लेवै कोइ॥

कबीर कहते हैं कि ऐसे स्थान पर मरना चाहिए जहाँ अपना कोई न हो।
जानवर उसका माँस खाकर अपना पेट भर लें और उसका नाम लेने वाला कोई ना हो।


जाका गुर भी अंधला, चेला खरा निरंध।
अंधा−अंधा ठेलिया, दून्यूँ कूप पड़ंत॥

जिसका गुरु अँधा अर्थात् ज्ञान−हीन है, जिसकी अपनी कोई चिंतन दृष्टि नहीं है और परंपरागत मान्यताओं तथा विचारों की सार्थकता को जाँचने−परखने की क्षमता नहीं है; ऐसे गुरु का अनुयायी तो निपट दृष्टिहीन होता है। उसमें अच्छे-बुरे, हित-अहित को समझने की शक्ति नहीं होती, जबकि हित-अहित की पहचान पशु-पक्षी भी कर लेते हैं। इस तरह अँधे गुरु के द्वारा ठेला जाता हुआ शिष्य आगे नहीं बढ़ पाता। वे दोनों एक-दूसरे को ठेलते हुए कुएँ मे गिर जाते हैं अर्थात् अज्ञान के गर्त में गिर कर नष्ट हो जाते हैं।


प्रेम न खेतौं नीपजै, प्रेम न दृष्टि बिकाइ।
राजा परजा जिस रुचै, सिर दे सो ले जाइ॥

प्रेम किसी खेत में उत्पन्न नहीं होता और न वह किसी हाट (बाज़ार) में ही बिकता है। राजा हो अथवा प्रजा, जिस किसी को भी वह रुचिकर लगे वह अपना सिर देकर उसे ले जा सकता है।


हरि रस पीया जाँणिये, जे कबहूँ न जाइ खुमार।
मैमंता घूँमत रहै, नाँहीं तन की सार॥

राम के प्रेम का रस पान करने का नशा नहीं उतरता। यही राम-रस पीने वाले की पहचान भी है। प्रेम-रस से मस्त होकर भक्त मतवाले की तरह इधर-उधर घूमने लगता है। उसे अपने शरीर की सुधि भी नहीं रहती। भक्ति-भाव में डूबा हुआ व्यक्ति, सांसारिक व्यवहार की परवाह नहीं करता और उसकी दृष्टि में देह-धर्म नगण्य हो जाता है।


अंषड़ियाँ झाँई पड़ी, पंथ निहारि-निहारि।
जीभड़ियाँ छाला पड्या, राम पुकारि-पुकारि॥

प्रियतम का रास्ता देखते-देखते आत्मा रूपी विरहिणी की आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा है। उसकी दृष्टि मंद पड़ गई है। प्रिय राम की पुकार लगाते-लगाते उसकी जीभ में छाले पड़ गए हैं।


कबीर ऐसा यहु संसार है, जैसा सैंबल फूल।
दिन दस के व्यौहार में, झूठै रंगि न भूलि॥

यह जगत सेमल के पुष्प की तरह क्षण-भंगुर तथा अज्ञानता में डालने वाला है। दस दिन के इस व्यवहार में, हे प्राणी! झूठ-मूठ के आकर्षण में अपने को डालकर स्वयं को मत भूलो।


परनारी पर सुंदरी, बिरला बंचै कोइ।
खातां मीठी खाँड़ सी, अंति कालि विष होइ॥

पराई स्त्री तथा पराई सुंदरियों से कोई बिरला ही बच पाता है। यह खाते (उपभोग करते) समय खाँड़ के समान मीठी (आनंददायी) अवश्य लगती है किंतु अंततः वह विष जैसी हो जाती है।


सतगुर की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।
लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावण हार॥

ज्ञान के आलोक से संपन्न सद्गुरु की महिमा असीमित है। उन्होंने मेरा जो उपकार किया है वह भी असीम है। उसने मेरे अपार शक्ति संपन्न ज्ञान-चक्षु का उद्घाटन कर दिया जिससे मैं परम तत्त्व का साक्षात्कार कर सका। ईश्वरीय आलोक को दृश्य बनाने का श्रेय महान गुरु को ही है।


कबीर यहु जग अंधला, जैसी अंधी गाइ।
बछा था सो मरि गया, ऊभी चांम चटाइ॥

यह संसार अँधा है। यह ऐसी अँधी गाय की तरह है, जिसका बछड़ा तो मर गया किंतु वह खड़ी-खड़ी उसके चमड़े को चाट रही है। सारे प्राणी उन्हीं वस्तुओं के प्रति राग रखते हैं जो मृत या मरणशील हैं। मोहवश जीव असत्य की ओर ही आकर्षित होता है।


तीन लोक भौ पींजरा, पाप-पुण्य भौ जाल।
सकल जीव सावज भये, एक अहेरी काल॥

सत, रज और तम ये तीनों गुण पिंजड़े बन गए, पाप तथा पुण्य जाल बन गए और सब जीव इनमें फंसने वाले शिकार बन गए। एक अज्ञान-काल-शिकारी ने सबको फंसाकर मारा।


खीर रूप हरि नाँव है, नीर आन व्यौहार।
हंस रूप कोइ साध है, तत का जाणहार॥

स्वयं भगवान क्षीर रूप हैं, जगत के अन्य व्यवहार जल की तरह हैं। कोई विरला साधु हंस रूप है जो तत्त्व का जानने वाला है। जल को छोड़कर क्षीर (दूध) की ओर उन्मुख भक्त जन ही होते हैं, क्योंकि नीर-क्षीर विवेक उन्हीं में होता है।


पाणी केरा बुदबुदा, इसी हमारी जाति।
एक दिनाँ छिप जाँहिगे, तारे ज्यूं परभाति॥

यह मानव जाति तो पानी के बुलबुले के समान है। यह एक दिन उसी प्रकार छिप (नष्ट) जाएगी, जैसे ऊषा-काल में आकाश में तारे छिप जाते हैं।


पात झरंता यों कहै, सुनि तरवर बनराइ।
अब के बिछुड़े ना मिलैं, कहुँ दूर पड़ैंगे जाइ॥

पेड़ से गिरता हुआ पत्ता कहता है कि बनराजि के वृक्ष अबकी
बार बिछुड़कर फिर नहीं मिलेंगे, गिरकर कहीं दूर हो जाएँगे। जीवात्मा जहाँ जन्म लेती है दुबारा वहाँ उसका जन्म नहीं होता।


बाग़ों ना जा रे ना जा, तेरी काया में गुलज़ार।
सहस-कँवल पर बैठ के, तू देखे रूप अपार॥

अरे, बाग़ों में क्या मारा-मारा फिर रहा है। तेरी अपनी काया (अस्तित्व) में गुलज़ार है। हज़ार पँखुड़ियों वाले कमल पर बैठकर तू ईश्वर का अपरंपार रूप देख सकता है।


जाके मुँह माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप।
पुहुप बास तैं पातरा, ऐसा तत्त अनूप॥

जिसके मुख और मस्तक नहीं है, न रूप है न अरूप। वह न तो रूपवान है
और न रूपहीन है, पुष्प की सुगंध से भी सूक्ष्म वह अनुपम तत्त्व है।


अंतरि कँवल प्रकासिया, ब्रह्म वास तहाँ होइ।
मन भँवरा तहाँ लुबधिया, जाँणौंगा जन कोइ॥

कबीर कहते हैं कि हृदय के भीतर कमल प्रफुल्लित हो रहा है। उसमें से ब्रह्म की सुगंध आ रही या वहाँ ब्रह्म का निवास है। मेरा मन रूपी भ्रमर उसी में लुब्ध हो गया। इस रहस्य को कोई ईश्वर भक्त ही समझ सकता है। किसी अन्य व्यक्ति के समझ में नहीं आएगा।


आधी साखी सिर खड़ी, जो निरूवारी जाय।
क्या पंडित की पोथिया, जो राति दिवस मिलि गाय॥

विचार एवं निर्णय करके आचरण में लायी गई बोधप्रद आधी साखी भी पूर्ण कल्याणकारी हो सकती है। निर्णय-रहित पंडित की बड़ी-बड़ी पोथियों को रात-दिन गाने से क्या लाभ जिनमें स्वरूप का सच्चा बोध नहीं है।


जाके मुँह माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप।
पुहुप बास तैं पातरा, ऐसा तत्त अनूप॥

जिसके मुख और मस्तक नहीं है, न रूप है न अरूप। वह न तो रूपवान है
और न रूपहीन है, पुष्प की सुगंध से भी सूक्ष्म वह अनुपम तत्त्व है।


कबीर का घर शिखर पर, जहाँ सिलहली गैल।
पाँव न टिके पिपीलका, तहाँ खलकन लादै बैल॥

जीव की शाश्वत स्थिति उसके अपने सर्वोच्च स्वरूप चेतन में है। उस तक पहुंचने का रास्ता फिसलन से भरा है। जहां चींटी के पैर नहीं टिकते, वहां संसार के लोग बैल पर सामान लादकर व्यापार करना चाहते हैं।


पायन पुहुमी नापते, दरिया करते फाल।
हाथन पर्वत तौलते, तेहि धरि खायो काल॥

जो ओंधे पैरों से पूरी पृथ्वी नाप लेते थे, समुद्र को एक ही छलांग में कूद जाते थे और अपने हाथों से पर्वत उठा लेते थे, उन्हें भी मौत ने धर दबोचा।


हाड़ जरै जस लाकड़ी, बार जरै जस घास।
कबिरा जरे रामरस, जस कोठी जरै कपास॥

मृत शरीर का दाह करने पर उसकी हड्डी लकड़ी के समान जलती है और बाल घास के समान जलते हैं, परंतु परोक्ष में राम मानकर उसकी उपासना एवं विरह-वेदना में जीव उसी प्रकार भीतर-भीतर जलता रहा जैसे कोठी में कपास जल जाए और बाहर पता न चले।


मूवा है मरि जाहुगे, बिन शिर थोथी भाल।
परेहु करायल बृक्ष तर, आज मरहु की काल॥

पहले के लोग मर चुके हैं। तुम भी अविवेकरूपी बिना धार के भोथरे भाले के प्रहारों से एक दिन मर जाओगे। क्षणभंगुर संसार रूपी बिना पत्ते एवं बिना छाया के कंटीले झाड़ीदार करील पेड़ के नीचे पड़े हो, आज मरो या कल।


आधी साखी सिर खड़ी, जो निरूवारी जाय।
क्या पंडित की पोथिया, जो राति दिवस मिलि गाय॥

विचार एवं निर्णय करके आचरण में लायी गई बोधप्रद आधी साखी भी पूर्ण कल्याणकारी हो सकती है। निर्णय-रहित पंडित की बड़ी-बड़ी पोथियों को रात-दिन गाने से क्या लाभ जिनमें स्वरूप का सच्चा बोध नहीं है।


मूवा है मरि जाहुगे, मुये कि बाजी ढोल।
सपन सनेही जग भया, सहिदानी रहिगौ बोल॥

पहले के लोग मर चुके हैं। तुम भी मर जाओगे। मुये चाम का ही तो ढोल बजता है। संसार के लोग सपने में मिले हुए प्राणी-पदार्थों के मोही बने हैं। एक दिन यह सपना टूट जाता है। मर जाने के बाद लोगों में उसकी चर्चा ही कुछ दिनों तक पहचान रह जाती है।


असुन्न तखत अड़ि आसना, पिण्ड झरोखे नूर।
जाके दिल में हौं बसा, सैना लिये हजूर॥

हे जीव! जिसने शरीर के इन्द्रिय-झरोखों से अपना ज्ञान-प्रकाश फैला रखा है, वह सत्य चेतनस्वरूप ही तुम्हारी अविचल स्थिति-दशा है। ज्ञान-प्रकाश की सेना लेकर 'मैं' के रूप में सभी दिलों में वही उपस्थिति है।


राम नाम जिन चीन्हिया, झीना पिंजर तासु।
नैन न आवै नींदरी, अंग न जामें माँसु॥

जिसका नाम राम है उस आत्मतत्व की जिन्होंने परख की, उसका शरीर दुर्बल होता है, उसके नेत्रों में नींद नहीं आती तथा उसके अंगों में मांस नहीं बढ़ता।


जो जन भीजै रामरस, बिगसित कबहुँ न रुख।
अनुभव भाव न दरसे, ते नर सुख न दुख॥

जो साधक आत्मचिंतन में सदैव डूबे रहते हैं, वे न सांसारिक उपलब्धियों में हर्षित होते हैं और न उनके चले जाने से शोकित होते हैं। सदैव स्वरूपस्थिति के अनुभव में लीन होने से उन्हें सांसारिक भाव-तरंगें नही प्रभावित कर पातीं। अतएव वे सांसारिक वस्तुओं के मिलने-बिछुड़न में न सुखी होते हैं और न दुखी होते हैं।


जाके चलते रौंदे परा, धरती होय बेहाल।
सो सावत घामें जरे, पण्डित करहू विचार॥

हे पंडितों! विचार करो, जिनके चलने के कारण पद-मर्दन से जमीन रगड़ जाती थी और धरती के जीव परेशान हो जाते थे, वे राजे-महाराजे एवं योद्धागण युद्धस्थल में अधमरे पड़े धूप में जलते हैं।


पारस रूपी जीव है, लोह रूप संसार।
पारस ते पारस भया, परख भया टकसार॥

जीव पारसरूप है तथा संसार लोहरूप है। अर्थात जीव चेतन है और संसार जड़ है। जैसे पारस से छू जाने पर लोहा सोना हो जाता है, वैसे चेतन के संबंध से जड़ शरीर चेतनवत हो जाता है। पारस के स्पर्श से लोहा केवल सोना होता है, पारस नहीं, परंतु पारखी सद्गुरु के संसर्ग से मनुष्य पारखी हो जाता है। यही पारस से पारस होना है। और सत्यासत्य की परख सत्संग में होती है।


मसि कागद छूवों नहीं, कलम गहो नहिं हाथ।
चारिउ युग का महातम, कबीर मुखहि जनाई बात॥

मैं स्याही और कागज नहीं छूता और न कलम हाथ में पकड़ता हूँ, चारों युगों में जिसकी महत्ता है, मैं उसकी बातें मुख से ही बता देता हूँ।


एक कहौं तो है नहीं, दोय कहौं तो गारि।
है जैसा रहै तैसा, कहहिं कबीर बिचारि॥

यदि मैं कहूं कि तत्व एक है तो वैसा है ही नहीं, परंतु यदि कहूं कि जीव का आश्रय-स्थल कोई दूसरा है तो यह भी अनुचित बात है। इसलिए कबीर साहेब विचारपूर्वक कहते हैं कि जैसी वास्तविकता है वैसी दशा में ही स्थित होना चाहिए।


बिन देखे वह देश की, बात कहै सो कूर।
आपुहि खारी खात है, बेंचत फिरै कपूर॥

जीवन्मुक्ति एवं स्वरूपस्थिति का अनुभव किए बिना जो उसका अधिकारपूर्वक व्याख्यान करते हैं, वे कायर एवं मूर्ख हैं। वे स्वयं तो विषय-भोगरूपी नमक खाते हैं और दूसरे को श्रेष्ठ ज्ञानरूपी कपूर बांटते फिरते हैं।


बिनु डाँड़े जग डाँड़िया, सोरठ परिया डाँड़।
बाटनि हारे लोभिया, गुर ते मीठी खाँड़॥

संसार के लोगों को किसी ने दण्डित नहीं किया,किंतु ये अपने अज्ञानवश स्वयं ही दण्डित हुए। इनका मानव-जीवनरूपी जुआ व्यर्थ गया। ये सुख के लोभी अपने कल्याण की इच्छा का दांव हार गए। गुड़ से शकर मीठा होता है, परंतु ये गुड़ को शकर न बना सके अर्थात जीवन को तपाकर आध्यात्मिक लाभ न ले सके।


हंसा मोति बिकानिया, कंचन थार भराय।
जो जाको मरम न जाने, सो ताको काह कराय॥

जैसे हंस मोती चुगने के प्रलोभन में पड़कर तथा बधिक के जाल में फंसकर बाज़ार में बिक जाए। वैसे चेतन-मानव मुक्ति के प्रलोभन में पड़कर तथा थाली में स्वर्ण-मोहरें भरकर गुरुओं को अर्पित करता है और उनके जाल में फंसकर संसार-बाज़ार में बिक जाता है, किंतु जो भ्रमिक एवं अधकचरे गुरु स्वयं मुक्ति का रहस्य नहीं जानते हैं, शिष्यों को क्या रास्ता बता सकते हैं।


पाँच तत्व का पूतरा, युक्ति रची मैं कीव।
मैं तोहि पूछौं पंडिता, शब्द बड़ा की जीव॥

पांच तत्वों के इस पुतले शरीर को मैंने ही रचकर तैयार किया है। हे पंडितों! मैं तुमसे पूछता हूँ कि शब्द बड़ा होता है या जीव?


बिरह बाण जेहि लागिया, औषध लगे न ताहि।
सुसुकि-सुसुकि मरि-मरि जिवै, उठे कराहि-कराहि॥

जिसको विरह का बाण लग गया है, अर्थात जो समझता है कि मेरा लक्ष्य मुझसे अलग है, उसको स्वरूप-विचार की औषधि नहीं लगती। वह तो अपने लक्ष्य को पाने के लिए सुबक-सुबककर रोता है, मूर्छित होता है, जागता है और अपने प्रियतम के वियोग की याद में बारम्बार कराह उठता है।


धौंकी डाही लाकड़ी, वो भी करे पुकार।
अब जो जाय लोहार घर, डाहै दूजी बार॥

जली हुई धौं की लकड़ी कोयला बनकर चिल्लाती है कि यदि मैं लोहार के घर गई तो वह मुझे पुन: जलाएगा। अर्थात जन्म-जन्मान्तरों एवं गर्भवास से पीड़ित मुमुक्षु जीव सद्गुरु की शरण में पुकरता है कि हे सद्गुरु,अब मुझे संसार-सागर से बचा लो, अन्यथा यदि अज्ञानरूपी लोहार के हाथों में पड़ गया तो मैं उसके द्वारा पुन: संसार के तापों में जलाया जाऊंगा।


गोरख रसिया योग के, मुये न जारी देह।
माँस गली माटी मिली, कोरी माँजी देह॥

श्री गोरखनाथ जी योगाभ्यास के बड़े प्रेमी थे। उन्होंने अपने शरीर को योगाभ्यास में इसलिए तपाया कि यह अमर हो जाए। फलत:


बिरह की ओदी लाकड़ी, सपचै औ धुँधवाय।
दुख ते तबहीं बाँचिहो, जब सकलो जरि जाय॥

जैसे पानी से भीगी गीली लकड़ी को जलाने पर वह धू-धू कर सुलगती है, ठीक से जलती नहीं, उसका धू-धू कर सुलगना तभी समाप्त होता है जब वह पूर्णतया जल जाती है, वैसे जो व्यक्ति अपने सुख एवं लक्ष्य को अपने से अलग मानकर उसके वियोग की पीड़ा का अनुभव करता है वह मन-ही-मन निरंतर सुलगता और रोता रहता है। इस दुख से वह तभी बचता है जब उसके मन की सारी वासनाएं एवं कल्पनाएं जल जाती हैं।


हंसा सरवर तजि चले, देही परिगौ सून।
कहहिं कबीर पुकारि के, तेहि दर तेहि थून॥

जब जीव शरीर छोड़कर चला जाता है, तब यह शरीर चेतना से शून्य होकर मुरदा हो जाता है। सद्गुरु जोर देकर कहते हैं कि कर्माध्यासी जीव पुन: उसी गर्भ में प्रवेश करता है, जहाँ उसका शरीर निर्मित होता है।


घुँघुँची भर के बोइये, उपजा पसेरी आठ।
डेरा परा काल का, साँझ सकारे जात॥

पुरुष द्वारा नारी-क्षेत्र में थोड़ी मात्रा में सजीव वीर्य सिंचन से पांच विषय एवं तीन गुण से संबंधित मानो आठ पसेरी एवं मन भर का शरीर पैदा हो जाता है। और शरीर के पैदा होते ही मानो उसमें काल का पड़ाव पड़ जाता है। रात और दिन बीतते हैं और शरीर क्षीण होता है। परंतु यदि कोई पांच विषय एवं तीन गुणयुक्त इस आठ पसेरी के निर्जीव शरीर को गाड़ दे और इससे चाहे कि एक देहधारी का पिंड पैदा हो जाए तो असंभव है। जीवन-निर्माण का एक प्राकृतिक-क्रम है। सब कुछ या कुछ भी अचानक नहीं हो जाता है। परंतु लोग मेरी कारण-कार्य-व्यवस्था के विचारों को नहीं समझते, अत: वे भौतिकवादी दृष्टि अपनाकर अंत में अपने आप को खोकर चलते हैं।


गुरु सिकलीगर कीजिये, मनहि मस्कला देय।
शब्द छोलना छोलिके, चित दर्पण करि लेय॥

जिस प्रकार सिकलीगर मसकला देकर धातुओं को उज्ज्वल कर देता है, उसी प्रकार ऐसे सद्गुरु की शरण लो जो तुम्हारे मन पर विवेक का मसकला देकर, निर्णय शब्दरूपी छोलने से छीलकर और मल, विक्षेप तथा आवरणरूपी मूर्चा को झाड़कर तुम्हारे चित्त को दर्पणवत स्वच्छ बना दे।


प्रेम पाट का चोलना, पहिर कबीरु नाच।
पानिप दीन्हों तासु को, जो तन मन बोले साँच॥

हे मनुष्य! प्रेमरूपी वस्त्र का अंगरखा पहनकर नाचो, अर्थात अपने जीवन के सारे व्यवहार प्रेमपूर्वक करो। यह विश्व-प्रकृति उसी के जीवन में चमक देती है और विवेकवान मानव भी उसी की मर्यादा करते हैं जिसके तन में, मन में और वचन में एक सत्य ही समाया हो।


जो घर हैगा सर्प का, सो घर साध न होय।
सकल संपदा ले गये, विष भरि लागा सोय॥

जो सांप का घर है, वह साधु का घर नहीं है। अर्थात विषयासक्ति और देहादि का अहंकार तो जीव की सारी आध्यात्मिक शक्ति नष्ट कर देते हैं और सांसारिकता का विष लेकर उसमें चिपक जाते हैं।


दोहरा तो नौ तन भया, पदहि न चीन्हैं कोय।
जिन्ह यह शब्द विवेकिया, छत्र धनी है सोय॥

जीव अपने शुद्ध चेतनस्वरूप को भूलकर दूसरी एवं विजाति दृश्य-माया में मोह करता है, इसलिए उसे भव-सागर में भटकते हुए नए-नए शरीरों की प्राप्ति होती है। क्योंकि विजाति जड़-दृश्यों से हटकर कोई अपने चेतनस्वरूप को तो पहचानता नहीं। जो व्यक्ति उक्त बातों पर विवेक कर तथा जड़-दृश्यों का राग छोड़कर अपने शुद्ध चेतनस्वरूप में स्थित होता है, वह स्वरूपस्थिति के उच्चासन पर आरूढ़ होकर स्वतंत्र, सुखी एवं सम्राट हो जाता है।


पाँच तत्त्व के भीतरे, गुप्त बस्तु अस्थान।
बिरला मर्म कोई पाइ हैं, गुरु के शब्द प्रमान॥

पांच तत्वों से बने इस शरीर के भीतर-स्थान में एक अदृश्य ज्ञानस्वरूप चेतन जीव निवास करता है। परंतु सद्गुरु के निर्णय वचनों के प्रमाणों से कोई बिरला उसका भेद ठीक से जान सकता है।


गही टेक छोड़ै नहीं, जीभ चोंच जरि जाय।
ऐसो तप्त अंगार है, ताहि चकोर चबाय॥

चकोर पक्षी चंद्रमा का प्रेमी होता है वह उसके प्रेमपक्ष को कभी नहीं छोड़ता। वह तप्त अंगार को भी चंद्रमा का अंश मानकर निगल जाता है चाहे उसकी जीभ एवं चोंच भले जल जाएं। लगाव ऐसी वस्तु है कि वह जलता भी नहीं।


मानुष तेरा गुण बड़ा, माँसु न आवे काज।
हाड़ न होते आभरण, त्वचा न बाजन बाज॥

हे मनुष्य! तेरे दयादि सद्गुण ही श्रेष्ठ हैं, अन्यथा तेरा शरीर व्यर्थ है। न तेरा मांस किसी के काम में आता है, न तेरी हड्डी के आभूषण बनते हैं और न तेरे चाम के बाजे बनकर बजते हैं।


लोभे जन्म गँमाइया, पापै खाया पून।
साधी सो आधी कहैं, ता पर मेरा ख़ून॥

लोग अपना जीवन लोभ में खो देते हैं। लोभ तो पाप की जड़ है। वह पुण्य को खा जाता है। अधकचरे गुरु साधक-जीव से परमार्थ की आधी-अधूरी बातें करते हैं। उन पर मुझे गुस्सा आता है।


शब्द हमारा तू शब्द का, सुनि मति जाहु सरक।
जो चाहो निज तत्त्व को, तो शब्दहि लेह परख॥

हे मानव! जो हमारे निर्णय वचन हैं, तुम उनके अधिकारी हो, परंतु उन्हें सुनकर खिसक न जाओ, प्रत्युत उनका आचरण करो। तुम यदि अपने मूल स्वरूप का बोध चाहते हो, तो सार-असार शब्दों की परख करो।



जो जानहु जग जीवना, जो जानहु सो जीव।
पानि पचावहु आपना, तो पानी माँगि न पीव॥

यदि जगत में जीने की कला जानते हो और उस जीव को भी जानते हो जो तुम्हारा स्वरूप है, तो आज तक की ग्रहण की हुई सारी वासनाओं को नष्ट कर दो तथा आगे किसी प्रकार वासना संसार से न ग्रहण करो।



पानि पियावत क्या फिरो, घर-घर सायर बारि।
तृषावन्त जो होयगा, पीवगा झख मारि॥

उपदेश क्या देते फिरते हो! सबके मन में ज्ञान का सागर भरा है, अर्थात् सबको अहंकार है कि हम ज्ञानी हैं। जो व्यक्ति सत्योपदेश का प्यासा होगा, वह अहंभाव छोड़कर स्वयं ग्रहण करेगा।


शब्द हमारा आदि का, पल-पल करहु याद।
अन्त फलेगी माँहली, ऊपर की सब बाद॥

हमारे निर्णय-शब्द मूल चेतनस्वरूप के परिचायक हैं, अत: ऐसे शब्दों का निरंतर मनन-चिंतन करो। इसके अंतिम फल में स्वरूपस्थिति रूपी महल के निवासी बन जाओगे, ऊपर की माया तो सब व्यर्थ है।


रतन का जतन करु, माँड़ी का सिंगार।
आया कबीरा फिर गया, झूठा है हंकार॥

मानव-शरीररूपी रत्न को अच्छे उपाय से रखो, अथवा महान-रत्न अपने जीव को, अपनी चेतना-आत्मा को सम्हालकर रखो। जिस माया के श्रृंगार एवं चटक-मटक में तुम भूलते हो, वह पसेव चढ़े हुए चिकने कपड़े या सजे हुए बाजार के समान दिखाऊ एवं क्षणभंगुर है। सद्गुरु कहते हैं कि जीव संसार में आते हैं और फिर थोड़े दिनों में लौट जाते हैं, इसलिए यहां का अहंकार मिथ्या है।


मानुष तैं बड़ पापिया, अक्षर गुरुहि न मान।
बार-बार बन कूकुही, गर्भ धरे और ध्यान॥

हे भूला मानव! तू बड़ा पापी है जो गुरु के दिए हुए अविनाशी स्वरूप के उपदेश को नहीं मानता और नाशवान देहादि में पचता है। जैसे बनमुरगी बारम्बार गर्भ धारणकर अंडे देती है और उन्हीं के सेने में ध्यान रखती है, वैसे तू भी देह, गेह परिवार आदि का अहंकार कर उन्ही की सुरक्षा में सदैव ध्यान रखता है और अविनाशी निर्भय स्थिति से दूर रहता है।


बेह्या दीन्हों खेत को, बेह्या खेतहिं खाय।
तीन लोक संशय परी, मैं काहि कहौं समुझाय॥

बाड़ फसल की रक्षा के लिए लगाई जाती है, परंतु दुख की बात है कि यहां बाड़ ही फसल को खा रही है, अर्थात मनुष्य माया का फैलाव अपने सुख के लिए करता है, परंतु उसकी फैलाई हुई माया ही उसे दुख देती है। मैं किसको-किसको समझाऊं, सारे संसार में यह भ्रम है कि माया जीव को सुख देती है।


साँप बिच्छू का मंत्र है, माहुरहू झारा जाय।
विकट नारि के पाले परे, काढ़ि कलेजा खाय॥

सर्प तथा बिच्छू के काट और छेद लेने पर उनके विष को दूर करने के लिए वैद्य एवं डॉक्टरों की अनेक राय हैं। खाया हुआ विष भी औषध देकर टट्टी एवं वमन द्वारा गिराया जा सकता है। परंतु भयंकर स्त्री के चंगुल में फंस जाने पर उसके विष से छुटकारा पाना कठिन है। वह पुरुष का कलेजा निकालकर खा लेती है।


कल काठी कालू घुना, जतन-जतन घुन खाय।
काया मध्ये काल बसत है, मर्म न काहू पाय॥

जड़ तत्वों से बना यह शरीर एवं शरीर की गठन बहुत कमजोर है। इसमें काल का घुन लगा है और वह धीरे-धीरे इसे खाकर निकम्मा बना रहा है। कोई यह रहस्य नहीं जानता कि शरीर के अंदर ही काल रहता है।


समुझे की गति एक है, जिन्ह समुझा सब ठौर।
कहिं कबीर ये बीच के, बलकहिं और की और॥

जिन्होंने जड़-चेतन की समस्त स्थितियों, गुण-धर्मों एवं जड़ से सर्वथा भिन्न अपने चेतन स्वरूप को समझ लिया है और समझकर चिर विश्राम पा लिया है, उन सब ज्ञानियों के एक ज्ञान, एक आचरण, एक स्थिति एवं एक समान मोक्षावस्था होती है। सद्गुरु कहते हैं कि अधकचरे-अधूरे लोग ही अन्य-का-अन्य बकते हैं।


मानुष जन्म नर पायके, चूके अबकी घात।
जाय परे भवचक्र में, सहे घनेरी लात॥

जीव ने विवेक-प्रधान मानव-जन्म को पाकर भी यदि ऐसे सुनहले अवसर में स्वरूपज्ञान एवं स्वरूपस्थिति का काम नहीं किया और इस महत्त्वपूर्ण अवसर को व्यर्थ खो दिया तो वह जाकर पुन: जन्म-मरण के चक्कर में पड़कर असीमित दुख भोगता रहेगा।


जहर जिमी दै रोपिया, अमी सींचे सौ बार।
कबीर खलक ना तजै, जामें जौन विचार॥

यदि जमीन में जहर का पेड़ लगा दिया गया है तो उसे सौ बार भी अमृत से सींचने पर उसका जहर नहीं जा सकता। सद्गुरु कहते हैं कि इसी प्रकार जिसके मन में जो उलटे-सीधे विचार धंस जाते हैं, वे उसे नहीं निकालते, चाहे उन्हें सैकड़ों बार सत्योपदेश दिए जाएं।


गाँव ऊँचे पहाड़ पर, औ मोटा की बाँह।
कबीर अस ठाकुर सेइये, उबरिये जाकी छाँह॥

जीव की स्थिति उच्च चैतन्य शिखर पर है। हे मनुष्य! तुम उन श्रेष्ठ संत एवं सद्गुरु का सहारा लो और उनकी सेवा करो जिनकी शरण से तुम्हारा संसार-सागर से उद्धार हो।



यहाँ ई सम्मल करिले, आगे विषई बाट।
स्वर्ग बिसाहन सब चले, जहाँ बनियाँ न हाट॥

वर्तमान स्वस्थ नरजन्म में अपनी कल्याण-साधना कर लो। इसके अतिरिक्त पशु आदि योनियों में तो केवल विषयों का मार्ग है। सब जीव स्वर्ग में कल्याण-सौदा खरीदने चले, जहाँ न वणिक हैं, न बाज़ार। अर्थात् जहाँ न सद्गुरु हैं, न सत्संग।


एक शब्द गुरुदेव का, ताका अनंत विचार।
थाके मुनिजन पंडिता, बेद न पावैं पार॥

'मोक्ष' गुरुदेव के इस एक शब्द पर मनीषियों ने असंख्य विचार किए हैं। मुनिजन तथा विद्वानजन विचार करके थक गए हैं। वेदों ने इसका पार नहीं पाया है।



शब्द-शब्द सब कोई कहैं, वो तो शब्द विदेह।
जिभ्या पर आवै नहीं, निरखि परखि करि लेह॥

सभी मतवादी शब्द-ही-शब्द को अपना उपास्य एवं लक्ष्य कहते हैं, परंतु व्यक्ति का जो उपासनीय एवं लक्ष्य है वह तो शब्द के जालों से सर्वथा रहित शुद्ध चेतन है। वह जीभ पर आने की वस्तु नहीं है। उसकी केवल निरख-परख करो।


बड़े गये बड़ापने, रोम-रोम हंकार।
सतगुरु के परचै बिना, चारों बरन चमार॥

कितने बड़े कहलाने वाले अपने मिथ्या बड़प्पन के मद में नीचे गिर गए, क्योंकि उनके रोयें-रोयें में अहंकार भरा था। सद्गुरु के द्वारा स्वरूपज्ञान पाए बिना दैहिक बुद्धि रखने वाले चारों वर्ण के लोग चमार हैं,क्योंकि उनकी समझ चाम की देह तक है।



शब्द बिना सुरति आँधरी, कहो कहाँ को जाय।
द्वार न पावै शब्द का, फिर-फिर भटका खाय॥

निर्णय-वचनों को न पाने से मनुष्य का मन विवेकहीन होकर अंधा हो गया है। कहो भला, वह कहाँ जाएगा? वह शब्दों का द्वार गुरुमुख निर्णय वचन न पाने से बारंबार कल्पित शब्दों के भंवरजाल में भटका खाता है।

दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय ।
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय ।


क्या भरोसे देह का, बिनस जाय क्षण माही।
सांस सांस सुमिरन करो, और जतन कछु नाही॥


गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काको लागूं पाय
बलिहारी गुरु आपकी, जिन गोविंद दियो बताय।


साईं इतना दीजीए, जामे कुटुंब समाए
मै भी भूखा न रहूं, साधू न भूखा जाए।


मन हीं मनोरथ छांड़ी दे, तेरा किया न होई.
पानी में घिव निकसे, तो रूखा खाए न कोई.


कबीर कुआ एक हे,पानी भरे अनेक।
बर्तन ही में भेद है पानी सब में एक ।।


बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।।


बैद मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार।
एक कबीरा ना मुआ, जेहि के राम आधार॥


कबीरा तेरे जगत में, उल्टी देखी रीत ।
पापी मिलकर राज करें, साधु मांगे भीख ।


माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।


माटी कहे कुमार से, तू क्या रोदे मोहे ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे ।


चलती चक्की देख कर, दिया कबीरा रोए
दुई पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए।



जब तूं आया जगत में, लोग हंसे तू रोए
ऐसी करनी न करी पाछे हंसे सब कोए।


धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय।


जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।


दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।


तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
कबहुँ उड़ी ऑखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।


पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।


जहाँ न जाको गुन लहै, तहाँ न ताको ठाँव ।
धोबी बसके क्या करे, दीगम्बर के गाँव ॥


कस्तूरी कन्डल बसे मृग ढूढै बन माहि।
त्ऐसे घट-घट राम है, दुनिया देखे नहि।।


कबीर तहां न जाइये, जहां जो कुल को हेत
साधुपनो जाने नहीं, नाम बाप को लेत


कबीर सोई पीर है, जो जाने पर पीड़
जो पर पीड़ न जानता, सो काफ़िर बे-पीर


जो तोकू कांता बुवाई, ताहि बोय तू फूल।
तोकू फूल के फूल है, बाको है तिरशूल।।


अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप ।
अति का भला न बरसना, अति की भली न घूप ।।



नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए।
मीन सदा जल में रहे, धोय बास न जाए।


कबीर सतगुर ना मिल्या, रही अधूरी सीख।
स्वांग जाति का पहरी कर, घरी घरी मांगे भीख।।


फल कारन सेवा करे, करे ना मन से काम।
कहे कबीर सेवक नहीं, चाहे चौगुना दाम।।


पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात.
एक दिना छिप जाएगा, ज्यों तारा परभात.


कबीर प्रेम न चक्खिया,चक्खि न लिया साव।
सूने घर का पाहुना, ज्यूं आया त्यूँ जाव॥


ढोंगी मित्र न पालिये सर्पिल जाकी धार,
नफरत भीतर से करे जख्मी करे हज़ार !!


जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय ।
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय ॥


बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर,
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर.!


कबीर, कबीरा हरिके रूठते, गुरुके शरने जाय।
कहै कबीर गुरु रूठते, हरि नहिं होत सहाय।


तन की सौ सौ बनदिशे मन को लगी ना रोक
तन की दो गज कोठरी मन के तीनो लोक


लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट ।
पाछे फिर पछ्ताओगे, प्राण जाहि जब छूट ॥


कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी |
एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी ।।


ऊँचे कुल का जनमिया, करनी ऊँची न होय ।
सुवर्ण कलश सुरा भरा, साधू निंदा होय ।


काम बिगाड़े भक्ति को, क्रोध बिगाड़े ज्ञान।
लोभ बिगाड़े त्याग को, मोह बिगाड़े ध्यान।।


निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय ।
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।



कबीर के 10 बेहतरीन दोहे


जीवन में मरना भला, जो मरि जानै कोय |
मरना पहिले जो मरै, अजय अमर सो होय ||


अर्थ : जीते जी ही मरना अच्छा है, यदि कोई मरना जाने तो। मरने के पहले ही जो मर लेता है, वह अजर-अमर हो जाता है। शरीर रहते-रहते जिसके समस्त अहंकार समाप्त हो गए, वे वासना - विजयी ही जीवनमुक्त होते हैं।


मैं जानूँ मन मरि गया, मरि के हुआ भूत |
मूये पीछे उठि लगा, ऐसा मेरा पूत ||


अर्थ : भूलवश मैंने जाना था कि मेरा मन भर गया, परन्तु वह तो मरकर प्रेत हुआ। मरने के बाद भी उठकर मेरे पीछे लग पड़ा, ऐसा यह मेरा मन बालक की तरह है।



भक्त मरे क्या रोइये, जो अपने घर जाय |
रोइये साकट बपुरे, हाटों हाट बिकाय ||


अर्थ : जिसने अपने कल्याणरुपी अविनाशी घर को प्राप्त कर लिया, ऐसे संत भक्त के शरीर छोड़ने पर क्यों रोते हैं? बेचारे अभक्त - अज्ञानियों के मरने पर रोओ, जो मरकर चौरासी लाख योनियों के बाज़ार में बिकने जा रहे हैं।



मैं मेरा घर जालिया, लिया पलीता हाथ |
जो घर जारो आपना, चलो हमारे साथ ||


अर्थ : संसार - शरीर में जो मैं - मेरापन की अहंता - ममता हो रही है - ज्ञान की आग बत्ती हाथ में लेकर इस घर को जला डालो। अपना अहंकार - घर को जला डालता है।


शब्द विचारी जो चले, गुरुमुख होय निहाल |
काम क्रोध व्यापै नहीं, कबूँ न ग्रासै काल ||


अर्थ : गुरुमुख शब्दों का विचार कर जो आचरण करता है, वह कृतार्थ हो जाता है। उसको काम क्रोध नहीं सताते और वह कभी मन कल्पनाओं के मुख में नहीं पड़ता।



जब लग आश शरीर की, मिरतक हुआ न जाय |
काया माया मन तजै, चौड़े रहा बजाय ||


अर्थ : जब तक शरीर की आशा और आसक्ति है, तब तक कोई मन को मिटा नहीं सकता। इसलिए शरीर का मोह और मन की वासना को मिटाकर, सत्संग रूपी मैदान में विराजना चाहिए।



मन को मिरतक देखि के, मति माने विश्वास |
साधु तहाँ लौं भय करे, जौ लौं पिंजर साँस ||


अर्थ : मन को मृतक (शांत) देखकर यह विश्वास न करो कि वह अब धोखा नहीं देगा। असावधान होने पर वह फिर से चंचल हो सकता है इसलिए विवेकी संत मन में तब तक भय रखते हैं, जब तक शरीर में सांस चलती है।



कबीर मिरतक देखकर, मति धरो विश्वास |
कबहुँ जागै भूत है करे पिड़का नाश ||


अर्थ : ऐ साधक! मन को शांत देखकर निडर मत हो। अन्यथा वह तुम्हारे परमार्थ में मिलकर जाग्रत होगा और तुम्हें प्रपंच में डालकर पतित करेगा।



अजहुँ तेरा सब मिटै, जो जग मानै हार |
घर में झजरा होत है, सो घर डारो जार ||


अर्थ : आज भी तेरा संकट मिट सकता है यदि संसार से हार मानकर निरभिमानी हो जा। तुम्हारे अंधकाररूपी घर में को काम, क्रोधा आदि का झगड़ा हो रहा है, उसे ज्ञान की अग्नि से जला डालो।


सत्संगति है सूप ज्यों, त्यागै फटकि असार |
कहैं कबीर गुरु नाम ले, परसै नहीं विकार ||


अर्थ : सत्संग सूप के ही समान है, वह फटक कर असार का त्याग कर देता है। तुम भी गुरु से ज्ञान लो, जिससे बुराइयां बाहर हो जाएंगी।

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